रुख़-ए-रौशन से यूँ उट्ठी नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
कि जैसे हो तुलू-ए-आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता
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शौक़ ने इशरत का सामाँ कर दिया
आप अपना रू-ए-ज़ेबा देखिए
था क़फ़स का ख़याल दामन-गीर
दिल के कहने पे चलूँ अक़्ल का कहना न करूँ
'वहशत'-ए-मुब्तला ख़ुदा के लिए
ज़बरदस्ती ग़ज़ल कहने पे तुम आमादा हो 'वहशत'
लुत्फ़-ए-निहाँ से जब जब वो मुस्कुरा दिए हैं
और इशरत की तमन्ना क्या करें
नालों से अगर मैं ने कभी काम लिया है
सीने में मिरे दाग़-ए-ग़म-ए-इश्क़-ए-नबी है
किस नाम-ए-मुबारक ने मज़ा मुँह को दिया है