निशान-ए-मंज़िल-ए-जानाँ मिले मिले न मिले
मज़े की चीज़ है ये ज़ौक़-ए-जुस्तुजू मेरा
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मज़ा आता अगर गुज़री हुई बातों का अफ़्साना
वफ़ा-ए-दोस्ताँ कैसी जफ़ा-ए-दुश्मनाँ कैसी
मुरव्वत का पास और वफ़ा का लिहाज़
ज़मीं रोई हमारे हाल पर और आसमाँ रोया
आज़ाद उस से हैं कि बयाबाँ ही क्यूँ न हो
मुझ से जो न मिलते वो कोई रात न थी
आह-ए-शब नाला-ए-सहर ले कर
बहार आई है आराइश-ए-चमन के लिए
अभी होते अगर दुनिया में 'दाग़'-ए-देहलवी ज़िंदा
ऐ अहल-ए-वफ़ा ख़ाक बने काम तुम्हारा
ज़माना भी मुझ से ना-मुवाफ़िक़ मैं आप भी दुश्मन-ए-सलामत
मैं ने माना काम है नाला दिल-ए-नाशाद का