नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले
जिसे तुम ने किया ख़ामोश उस से क्या सदा निकले
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ऐ अहल-ए-वफ़ा ख़ाक बने काम तुम्हारा
ख़ाक में किस दिन मिलाती है मुझे
आँख में जल्वा तिरा दिल में तिरी याद रहे
वो काम मेरा नहीं जिस का नेक हो अंजाम
ख़याल तक न किया अहल-ए-अंजुमन ने ज़रा
हुए हैं गुम जिस की जुस्तुजू में उसी की हम जुस्तुजू करेंगे
पोशीदा देखती है किसी की नज़र मुझे
और इशरत की तमन्ना क्या करें
मज़ा आता अगर गुज़री हुई बातों का अफ़्साना
बे-समझे न जाम-ए-ग़म पिया था मैं ने
दर्द आ के बढ़ा दो दिल का तुम ये काम तुम्हें क्या मुश्किल है