मिरे तो दिल में वही शौक़ है जो पहले था
कुछ आप ही की तबीअत बदल गई होगी
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ऐ मिशअल-ए-उम्मीद ये एहसान कम नहीं
नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले
पोशीदा देखती है किसी की नज़र मुझे
'वहशत'-ए-मुब्तला ख़ुदा के लिए
मेरा मक़्सद कि वो ख़ुश हों मिरी ख़ामोशी से
न वो पूछते हैं न कहता हूँ मैं
शौक़ देता है मुझे पैग़ाम-ए-इश्क़
आप अपना रू-ए-ज़ेबा देखिए
दोनों ने बढ़ाई रौनक़-ए-हुस्न
किसी सूरत से उस महफ़िल में जा कर
वफ़ा-ए-दोस्ताँ कैसी जफ़ा-ए-दुश्मनाँ कैसी
क्या है कि आज चलते हो कतरा के राह से