मज़ा आता अगर गुज़री हुई बातों का अफ़्साना
कहीं से तुम बयाँ करते कहीं से हम बयाँ करते
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लूटा है मुझे उस की हर अदा ने
चला जाता है कारवान-ए-नफ़स
ज़िंदगी अपनी किसी तरह बसर करनी है
न वो पूछते हैं न कहता हूँ मैं
मेरा मक़्सद कि वो ख़ुश हों मिरी ख़ामोशी से
ख़ाक में किस दिन मिलाती है मुझे
ऐ मिशअल-ए-उम्मीद ये एहसान कम नहीं
उठा लेने से तो दिल के रहा मैं
दोनों ने बढ़ाई रौनक़-ए-हुस्न
बेजा है तिरी जफ़ा का शिकवा
तेरा मरना इश्क़ का आग़ाज़ था
मिरे तो दिल में वही शौक़ है जो पहले था