मजाल-ए-तर्क-ए-मोहब्बत न एक बार हुई
ख़याल-ए-तर्क-ए-मोहब्बत तो बार बार किया
Rahat Indori
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आँख में जल्वा तिरा दिल में तिरी याद रहे
हर चंद 'वहशत' अपनी ग़ज़ल थी गिरी हुई
तेरा मरना इश्क़ का आग़ाज़ था
शर्मिंदा किया जौहर-ए-बालिग़-नज़री ने
दिल के कहने पे चलूँ अक़्ल का कहना न करूँ
तीर-ए-नज़र ने ज़ुल्म को एहसाँ बना दिया
लूटा है मुझे उस की हर अदा ने
शौक़ फिर कूचा-ए-जानाँ का सताता है मुझे
तू है और ऐश है और अंजुमन-आराई है
किसी सूरत से उस महफ़िल में जा कर
लुत्फ़-ए-निहाँ से जब जब वो मुस्कुरा दिए हैं
दिल को हम कब तक बचाए रखते हर आसेब से