किस तरह हुस्न-ए-ज़बाँ की हो तरक़्क़ी 'वहशत'
मैं अगर ख़िदमत-ए-उर्दू-ए-मुअ'ल्ला न करूँ
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बहार आई है आराइश-ए-चमन के लिए
दर्द आ के बढ़ा दो दिल का तुम ये काम तुम्हें क्या मुश्किल है
ज़माना भी मुझ से ना-मुवाफ़िक़ मैं आप भी दुश्मन-ए-सलामत
तीर-ए-नज़र ने ज़ुल्म को एहसाँ बना दिया
लूटा है मुझे उस की हर अदा ने
ज़ालिम की तो आदत है सताता ही रहेगा
ज़बरदस्ती ग़ज़ल कहने पे तुम आमादा हो 'वहशत'
बज़्म में उस बे-मुरव्वत की मुझे
नालों से अगर मैं ने कभी काम लिया है
जो तुझ से शोर-ए-तबस्सुम ज़रा कमी होगी
ऐ अहल-ए-वफ़ा ख़ाक बने काम तुम्हारा
देखना वो गिर्या-ए-हसरत-मआल आ ही गया