हम ने आलम से बेवफ़ाई की
एक माशूक़-ए-बेवफ़ा के लिए
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और इशरत की तमन्ना क्या करें
निशान-ए-मंज़िल-ए-जानाँ मिले मिले न मिले
संग-ए-तिफ़्लाँ फ़िदा-ए-सर न हुआ
शौक़ देता है मुझे पैग़ाम-ए-इश्क़
देखना वो गिर्या-ए-हसरत-मआल आ ही गया
दोनों ने बढ़ाई रौनक़-ए-हुस्न
दर्द का मेरे यक़ीं आप करें या न करें
ख़ाक में किस दिन मिलाती है मुझे
हर चंद 'वहशत' अपनी ग़ज़ल थी गिरी हुई
बेजा है तिरी जफ़ा का शिकवा
तुम्हारा मुद्दआ ही जब समझ में कुछ नहीं आया