दोनों ने बढ़ाई रौनक़-ए-हुस्न
शोख़ी ने कभी कभी हया ने
Rahat Indori
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मेरा मक़्सद कि वो ख़ुश हों मिरी ख़ामोशी से
बेजा है तिरी जफ़ा का शिकवा
दोनों ने किया है मुझ को रुस्वा
सच कहा है कि ब-उम्मीद है दुनिया क़ाइम
नालों से अगर मैं ने कभी काम लिया है
न वो पूछते हैं न कहता हूँ मैं
वफ़ा-ए-दोस्ताँ कैसी जफ़ा-ए-दुश्मनाँ कैसी
ज़बरदस्ती ग़ज़ल कहने पे तुम आमादा हो 'वहशत'
इस ज़माने में ख़मोशी से निकलता नहीं काम
नहीं कि इश्क़ नहीं है गुल ओ समन से मुझे
बे-समझे न जाम-ए-ग़म पिया था मैं ने
क्यूँ ग़म्ज़ा-ए-जाँ-सिताँ को ख़ंजर न कहें