बढ़ चली है बहुत हया तेरी
मुझ को रुस्वा न कर ख़ुदा के लिए
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'वहशत' उस बुत ने तग़ाफ़ुल जब किया अपना शिआर
तिरे आशुफ़्ता से क्या हाल-ए-बेताबी बयाँ होगा
दोनों ने बढ़ाई रौनक़-ए-हुस्न
कहते हो अब मिरे मज़लूम पे बेदाद न हो
किस नाम-ए-मुबारक ने मज़ा मुँह को दिया है
संग-ए-तिफ़्लाँ फ़िदा-ए-सर न हुआ
हम ने आलम से बेवफ़ाई की
मिरे तो दिल में वही शौक़ है जो पहले था
यहाँ हर आने वाला बन के इबरत का निशाँ आया
तेरा मरना इश्क़ का आग़ाज़ था
तू है और ऐश है और अंजुमन-आराई है
हुए हैं गुम जिस की जुस्तुजू में उसी की हम जुस्तुजू करेंगे