अज़ीज़ अगर नहीं रखता न रख ज़लील ही रख
मगर निकाल न तू अपनी अंजुमन से मुझे
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उठा लेने से तो दिल के रहा मैं
अभी होते अगर दुनिया में 'दाग़'-ए-देहलवी ज़िंदा
उस दिल-नशीं अदा का मतलब कभी न समझे
इस ज़माने में ख़मोशी से निकलता नहीं काम
नालों से अगर मैं ने कभी काम लिया है
बहार आई है आराइश-ए-चमन के लिए
कहते हो अब मिरे मज़लूम पे बेदाद न हो
आँख में जल्वा तिरा दिल में तिरी याद रहे
तिरे आशुफ़्ता से क्या हाल-ए-बेताबी बयाँ होगा
'वहशत'-ए-मुब्तला ख़ुदा के लिए
ज़बरदस्ती ग़ज़ल कहने पे तुम आमादा हो 'वहशत'
नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले