ऐ मिशअल-ए-उम्मीद ये एहसान कम नहीं
तारीक शब को तू ने दरख़्शाँ बना दिया
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गर्दन झुकी हुई है उठाते नहीं हैं सर
आँख में जल्वा तिरा दिल में तिरी याद रहे
तीर-ए-नज़र ने ज़ुल्म को एहसाँ बना दिया
किस नाम-ए-मुबारक ने मज़ा मुँह को दिया है
लगाओ न जब दिल तो फिर क्यूँ लगावट
हर चंद 'वहशत' अपनी ग़ज़ल थी गिरी हुई
चला जाता है कारवान-ए-नफ़स
क्यूँ ग़म्ज़ा-ए-जाँ-सिताँ को ख़ंजर न कहें
मुझ से जो न मिलते वो कोई रात न थी
और इशरत की तमन्ना क्या करें
उठा लेने से तो दिल के रहा मैं
शौक़ फिर कूचा-ए-जानाँ का सताता है मुझे