ऐ अहल-ए-वफ़ा ख़ाक बने काम तुम्हारा
आग़ाज़ बता देता है अंजाम तुम्हारा
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किस नाम-ए-मुबारक ने मज़ा मुँह को दिया है
यहाँ हर आने वाला बन के इबरत का निशाँ आया
आज़ाद उस से हैं कि बयाबाँ ही क्यूँ न हो
मुरव्वत का पास और वफ़ा का लिहाज़
शर्मिंदा किया जौहर-ए-बालिग़-नज़री ने
जान उस की अदाओं पर निकलती ही रहेगी
लूटा है मुझे उस की हर अदा ने
जुदा करेंगे न हम दिल से हसरत-ए-दिल को
कुछ समझ कर ही हुआ हूँ मौज-ए-दरिया का हरीफ़
तल्ख़ी-कश-ए-नौमीदी-ए-दीदार बहुत हैं
अज़ीज़ अगर नहीं रखता न रख ज़लील ही रख