अभी होते अगर दुनिया में 'दाग़'-ए-देहलवी ज़िंदा
तो वो सब को बता देते है 'वहशत' की ज़बाँ कैसी
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तू है और ऐश है और अंजुमन-आराई है
तीर-ए-नज़र ने ज़ुल्म को एहसाँ बना दिया
यहाँ हर आने वाला बन के इबरत का निशाँ आया
हम ने आलम से बेवफ़ाई की
इस ज़माने में ख़मोशी से निकलता नहीं काम
पोशीदा देखती है किसी की नज़र मुझे
नालों से अगर मैं ने कभी काम लिया है
मज़ा आता अगर गुज़री हुई बातों का अफ़्साना
आप अपना रू-ए-ज़ेबा देखिए
तेरा मरना इश्क़ का आग़ाज़ था
रुख़-ए-रौशन से यूँ उट्ठी नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
सुरूर-अफ़्ज़ा हुई आख़िर शराब आहिस्ता आहिस्ता