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नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले - वहशत रज़ा अली कलकत्वी कविता - Darsaal

नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले

नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले

जिसे तुम ने किया ख़ामोश उस से क्या सदा निकले

क़यामत इक बपा है सीना-ए-मजरूह-ए-उल्फ़त में

न तीर-ए-दिल-नशीं निकले न जान-ए-मुब्तला निकले

तुम्हारे ख़ूगर-ए-बेदाद को क्या लुत्फ़ की हाजत

वफ़ा ऐसी न करना तुम जो आख़िर को जफ़ा निकले

गुमाँ था काम-ए-दिल अग़्यार तुम से पाते हैं लेकिन

हमारी तरह वो भी कुश्ता-ए-तेग़-ए-जफ़ा निकले

ज़बरदस्ती ग़ज़ल कहने पे तुम आमादा हो 'वहशत'

तबीअत जब न हो हाज़िर तो फिर मज़मून क्या निकले

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In Hindi By Famous Poet Wahshat Raza Ali Kalkatvi. is written by Wahshat Raza Ali Kalkatvi. Complete Poem in Hindi by Wahshat Raza Ali Kalkatvi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.