रौशन हों दिल के दाग़ तो लब पर फ़ुग़ाँ कहाँ
रौशन हों दिल के दाग़ तो लब पर फ़ुग़ाँ कहाँ
ऐ हम-सफ़ीर आतिश-ए-गुल में धुआँ कहाँ
है नाम आशियाँ का मगर आशियाँ कहाँ
निखरे हुए हैं ख़ाक में तिनके कहाँ कहाँ
उठ उठ के पूछता ही रहा राह का ग़ुबार
कहता मगर ये कौन लुटा कारवाँ कहाँ
बाक़ी नहीं हैं जैब-ओ-गरेबाँ के तार भी
लिक्खेंगे ऐ बहार तिरी दास्ताँ कहाँ
हम अजनबी हैं आज भी अपने दयार में
हर शख़्स पूछता है यही तुम यहाँ कहाँ
देखो कि अब है बर्क़-ए-सितम की नज़र किधर
पूछो न ये चमन में जले आशियाँ कहाँ
आलम गुज़र रहा है अजब अहल-ए-दर्द पर
हो दिल में मुद्दआ भी तो मुँह में ज़बाँ कहाँ
अपनी ख़ुशी वजूद-ए-गुलिस्ताँ पे ऐ 'नसीम'
माना कि वो सुकून-ए-नशेमन यहाँ कहाँ
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