जिधर निगाह उठी खिंच गई नई दीवार
जिधर निगाह उठी खिंच गई नई दीवार
तिलिस्म-ए-होश-रुबा में है ज़िंदगी का शुमार
हर एक सम्त मुसल्लत है घोर तारीकी
बुझे बुझे नज़र आए तमाम शहर-ओ-दयार
ये शहर जैसे चुड़ैलों का कोई मस्कन हो
ज़बानें गुंग हैं तरसाँ हैं कूचा-ओ-बाज़ार
ख़ुद अपनी ज़ात में हम इस तरह मुक़य्यद हैं
न दिल में ताब-ओ-तवाँ है न जुरअत-ए-इज़हार
जो अपने सीने पे अक्सर सजा के रखते हैं
वो तमग़ा-हा-ए-तहव्वुर तो ले गए अग़्यार
कमाल-ए-नाज़ था अपनी ज़रफ़-निगाही पर
अजब कि पढ़ न सके हम नविश्ता-ए-दीवार
वो मौलवी कि उसूलों के पासबाँ थे कभी
वही तो बेचते फिरते हैं जुब्बा-ओ-दस्तार
वरूद-ए-शेर पे हद्द-ए-अदब के पहरे हैं
जो सच कहोगे तो ठहरोगे एक दिन ग़द्दार
'वहीद' कार-ए-सियासत है कार-ए-बे-काराँ
ज़बाँ को रोक लो क़ाएम रहे अदब का वक़ार
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