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रुख़्सत-ए-नुत्क़ ज़बानों को रिया क्या देगी - वहीद अख़्तर कविता - Darsaal

रुख़्सत-ए-नुत्क़ ज़बानों को रिया क्या देगी

रुख़्सत-ए-नुत्क़ ज़बानों को रिया क्या देगी

दर्स हक़-गोई का ये बिंत-ए-ख़ता क्या देगी

सज्दा करती है लईमों के दरों पर दुनिया

बे-नियाज़ों को ये बे-शर्म भला क्या देगी

यही होगा कि न आएगी कभी घर मेरे

मुझ को दुनिया-ए-दुनी और सज़ा क्या देगी

साल-हा-साल के तूफ़ाँ में भी दिल बुझ न सका

ज़क उसे सरकशी-ए-मौज-ए-हवा क्या देगी

कोई मौसम हो महकते हैं यहाँ ज़ख़्म के फूल

मेरे दामन को तही-दस्त सबा क्या देगी

दिल तो कुछ कहता है पर शर्म से उठते नहीं हाथ

देखना है कि ये बे-दस्त दुआ क्या देगी

ख़्वाहिश-ए-मर्ग है कुछ पाने की मौहूम उम्मीद

ज़िंदगी दे न सकी कुछ तो क़ज़ा क्या देगी

ख़्वाब देखे हैं तो बेदार रहो उम्र तमाम

चश्म-ए-ख़्वाबीदा को ताबीर-ए-सिला क्या देगी

इसी ज़िंदान में अब काट दो उम्र अपनी 'वहीद'

मैं न कहता था तुम्हें क़ैद-ए-वफ़ा क्या देगी

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In Hindi By Famous Poet Waheed Akhtar. is written by Waheed Akhtar. Complete Poem in Hindi by Waheed Akhtar. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.