दफ़्तर-ए-लौह ओ क़लम या दर-ए-ग़म खुलता है
दफ़्तर-ए-लौह ओ क़लम या दर-ए-ग़म खुलता है
होंट खुलते हैं तो इक बाब-ए-सितम खुलता है
हर्फ़-ए-इंकार है क्यूँ नार-ए-जहन्नम का हलीफ़
सिर्फ़ इक़रार पे क्यूँ बाब-ए-इरम खुलता है
आबरू हो न जो प्यारी तो ये दुनिया है सख़ी
हाथ फैलाओ तो ये तर्ज़-ए-करम खुलता है
माँगने वालों को क्या इज़्ज़त ओ रुस्वाई से
देने वालों की अमीरी का भरम खुलता है
बंद आँखें रहीं मेला है लुटेरों का लगा
अश्क लुट जाते हैं जब दीदा-ए-नम खुलता है
जान देने में जो लज़्ज़त है बचाने में कहाँ
दिल किसी से जो बंधे उक़्दा-ए-ग़म खुलता है
साथ रहता है सदा महफ़िल ओ तन्हाई में
दिल-ए-रम-ख़ुरदा मगर हम से भी कम खुलता है
देखो पस्ती से तो हर एक बुलंदी है राज़
जादा-ए-कोह फ़क़त ज़ेर-ए-क़दम खुलता है
क़र्ज़ अदा करना है जाँ का तो चलो मक़्तल में
खिंच गई बाग बजा तब्ल-ओ-अलम खुलता है
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