ख़ुद-रौ दलीलें
वो क्या था
क़हक़हा था
चीख़ थी
चिंघाड़ थी
या दहाड़ थी?
उस ने समाअत चीरती आवाज़ का गोला
उतरती रात की भीगी हुई पहनाई में दाग़ा
तो मेरे पाँव के नीचे ज़मीन चलने लगी
ये तुम ने क्या किया मेरी दबी आवाज़ ने पूछा
तो वो इक घूँट पानी से फटी आवाज़ को सी कर
किसी अंधे कुएँ की तह से बोला
मुझे जब भी मीरी बेदर्द सोचें तंग करती हैं
ज़माने की रविश से जब मिरी ख़ुर्द-रौ दलीलें जंग करती हैं
किताबें जब मिरे सर का निशाना बाँध के अपनी इबारत संग करती हैं
तो मुझ से और कुछ भी हो नहीं सकता
मैं ये बेदर्द आवाज़ा लगाता हूँ
वगरना सो नहीं सकता
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