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मैं रस्ते में जहाँ ठहरा हुआ था - वफ़ा नक़वी कविता - Darsaal

मैं रस्ते में जहाँ ठहरा हुआ था

मैं रस्ते में जहाँ ठहरा हुआ था

वहीं तो धूप का चेहरा खिला था

सभी अल्फ़ाज़ थे मेरी ज़बाँ के

मगर मैं ने कहाँ कुछ भी कहा था

वो किस के जिस्म की ख़ुश्बू थी आख़िर

हवा से तज़्किरा किस का सुना था

समुंदर में बहुत हलचल थी इक दिन

सफ़ीना किस का डूबा जा रहा था

कि जैसे ख़्वाब सा देखा था कोई

बस इतना याद है कोई मिला था

खंडर में घूमती फिरती थीं यादें

उदासी का अजब मंज़र सजा था

मिरी मिट्टी की हिम्मत बढ़ गई थी

मिरे रस्ते में दरिया आ गया था

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