उसे तो दौलत-ए-दुनिया भी कम भी पाने को
मिरी तो ज़ात का मीज़ान भी ज़ियादा नहीं
Ahmad Faraz
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वो एक हाथ बढ़ाएगा तुझ को पा लेगा
वक़्त की ताक़ पे दोनों की सजाई हुई रात
कुछ इस लिए भी तिरी आरज़ू नहीं है मुझे
हर मुलाक़ात पे सीने से लगाने वाले
इक रोज़ खेल खेल में हम उस के हो गए
दिलों पे दर्द का इम्कान भी ज़ियादा नहीं
इस ख़राबी की कोई हद है कि मेरे घर से
इक लम्हा-ए-फ़िराक़ पे वारा गया मुझे
इक दिन तिरी गली में मुझे ले गई हवा
अब के मसरूफ़ियत-ए-इश्क़ बहुत है हम को
मैं तो शब-ए-फ़िराक़ था तुम एक उम्र थी