इस से पहले कि ये आज़ार गवारा कर लें
आ मिरी जान मोहब्बत से किनारा कर लें
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अब के मसरूफ़ियत-ए-इश्क़ बहुत है हम को
मैं तो शब-ए-फ़िराक़ था तुम एक उम्र थी
जल्द आएँ जिन्हें सीने से लगाना है मुझे
इक रोज़ खेल खेल में हम उस के हो गए
उस हिज्र पे तोहमत कि जिसे वस्ल की ज़िद हो
मुझ से कब उस को मोहब्बत थी मगर मेरे बा'द
कुछ इस लिए भी तिरी आरज़ू नहीं है मुझे
उसे तो दौलत-ए-दुनिया भी कम भी पाने को
इस ख़राबी की कोई हद है कि मेरे घर से
फ़र्ज़-ए-सुपुर्दगी में तक़ाज़े नहीं हुए
जुनूँ के बाब में अब के ये राएगानी हो
दिलों पे दर्द का इम्कान भी ज़ियादा नहीं