आख़िर वो इज़्तिराब के दिन भी गुज़र गए
आख़िर वो इज़्तिराब के दिन भी गुज़र गए
जब दिल-ए-हरीफ़-ए-आतिश-ए-क़हर-ओ-इताब था
जाँ दोस्तों की चारागरी से लबों पे थी
सर दुश्मनों की संग-ज़नी से अज़ाब था
दामन-ए-सगान कू-ए-मोहब्बत से तार तार
चेहरा ख़राश-ए-दस्त-ए-जुनूँ से ख़राब था
वाँ ए'तिमाद-ए-मश्क़-ए-सियासत की हद न थी
याँ ए'तिबार-ए-नाला-ए-दिल बे-हिसाब था
हर बात सूफ़ियों की तरह पेच-ओ-ख़म लिए
हर लफ़्ज़ शाइरों की तरह इंतिख़ाब था
हर जल्वा एक दफ़्तर आशोब-ए-रोज़गार
हर ग़म्ज़ा इलम-ए-फ़ित्ना-गरी की किताब था
ख़्वाबीदा हर नज़र में बनाए फ़साद-ए-ख़ल्क़
पोशीदा हर रविश में नया इंक़लाब था
आज इस ग़ज़ल में हम पे क़यामत गुज़र गई
क्या गर्मी-ए-ख़याल थी क्या इल्तिहाब था
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