हक़ीक़त से जो आश्ना हो गया
हक़ीक़त से जो आश्ना हो गया
क़ुयूद-ए-हवस से रिहा हो गया
नुक़ूश-ए-अमल को मिटा कर कोई
अमीर-ए-तिलिस्म-ए-दुआ हो गया
वो क़ैद-ए-तसव्वुर से आज़ाद है
लताफ़त का जो आइना हो गया
तही-दामनी से पशेमाँ थे हम
वो तर-दामनी पर ख़फ़ा हो गया
है चेहरों पे क्यूँ छाई पज़मुर्दगी
शगुफ़्ता दिलों को ये क्या हो गया
जो ख़ुद ख़ालिक़-ए-मुद्दआ' था कभी
वही बंदा-ए-मुद्दआ हो गया
'वफ़ा' मय-कदे अब न जाए कोई
वो रिंद-ए-अज़ल पारसा हो गया
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