गया क़रीब जो परवाना रह गया जल कर
जमाल ख़ास हदों तक जमाल होता है
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अश्क पर गुदाज़-दिल हाशिया चढ़ाता है
काश उस बुत को भी हम वक़्फ़-ए-तमन्ना देखें
क़दम क़दम पे मैं सँभला हूँ ठोकरें खा कर
किसे बताऊँ कि ग़म क्या है सरख़ुशी क्या है
रफ़्ता रफ़्ता दिल-ए-बे-ताब ठहर जाएगा
इस दिलबरी की शान के क़ुर्बान जाइए
हर क़दम पर मुझे लग़्ज़िश का गुमाँ होता है
इश्क़ के हाथों में परचम के सिवा कुछ भी नहीं