तिरी तलाश में जाने कहाँ भटक जाऊँ
सफ़र में दश्त भी आता है घर भी आता है
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नाज़ कर नाज़ कि ये नाज़ जुदा है सब से
हिजाब उट्ठे हैं लेकिन वो रू-ब-रू तो नहीं
तुम हो जो कुछ कहाँ छुपाओगे
जाने कब तूफ़ान बने और रस्ता रस्ता बिछ जाए
जब से 'उम्मीद' गया है कोई!!
वो ख़्वाब ही सही पेश-ए-नज़र तो अब भी है
किसी से और तो क्या गुफ़्तुगू करें दिल की
हम तिरा अहद-ए-मोहब्बत ठहरे
गर क़यामत ये नहीं है तो क़यामत क्या है
कब तक इस प्यास के सहरा में झुलसते जाएँ
इक ऐसा मरहला-ए-रह-गुज़र भी आता है