सुकूत वो भी मुसलसल सुकूत क्या मअनी
कहीं यही तिरा अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू तो नहीं
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किसी से और तो क्या गुफ़्तुगू करें दिल की
तिरी तलाश में जाने कहाँ भटक जाऊँ
हाए इक शख़्स जिसे हम ने भुलाया भी नहीं
जाने ये कैसा ज़हर दिलों में उतर गया
हिजाब उट्ठे हैं लेकिन वो रू-ब-रू तो नहीं
गर क़यामत ये नहीं है तो क़यामत क्या है
वो ख़्वाब ही सही पेश-ए-नज़र तो अब भी है
ऐ दोपहर की धूप बता क्या जवाब दूँ
कब तक इस प्यास के सहरा में झुलसते जाएँ
मक़्तल-ए-जाँ से कि ज़िंदाँ से कि घर से निकले
तुम हो जो कुछ कहाँ छुपाओगे