घर तो ऐसा कहाँ का था लेकिन
दर-ब-दर हैं तो याद आता है
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सुकूत वो भी मुसलसल सुकूत क्या मअनी
मक़्तल-ए-जाँ से कि ज़िंदाँ से कि घर से निकले
आईना-ए-वहशत को जिला जिस से मिली है
ऐ दोपहर की धूप बता क्या जवाब दूँ
ये ख़ुद-फ़रेबी-ए-एहसास-ए-आरज़ू तो नहीं
वो ख़्वाब ही सही पेश-ए-नज़र तो अब भी है
कब तक इस प्यास के सहरा में झुलसते जाएँ
हम तिरा अहद-ए-मोहब्बत ठहरे
जाने कब तूफ़ान बने और रस्ता रस्ता बिछ जाए
हम हैं बस इतने ही साहिल-आश्ना
नाज़ कर नाज़ कि ये नाज़ जुदा है सब से
चमन में रखते हैं काँटे भी इक मक़ाम ऐ दोस्त