गर क़यामत ये नहीं है तो क़यामत क्या है
शहर जलता रहा और लोग न घर से निकले
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तिरी तलाश में जाने कहाँ भटक जाऊँ
जाने ये कैसा ज़हर दिलों में उतर गया
सुकूत वो भी मुसलसल सुकूत क्या मअनी
जाने कब तूफ़ान बने और रस्ता रस्ता बिछ जाए
जब से 'उम्मीद' गया है कोई!!
किसी से और तो क्या गुफ़्तुगू करें दिल की
मक़्तल-ए-जाँ से कि ज़िंदाँ से कि घर से निकले
हाए इक शख़्स जिसे हम ने भुलाया भी नहीं
जाने किस मोड़ पे ले आई हमें तेरी तलब
नज़र न आए तो क्या वो मिरे क़यास में है
नाज़ कर नाज़ कि ये नाज़ जुदा है सब से