ज़ेहन-ओ-दिल में कुछ न कुछ रिश्ता भी था
ज़ेहन-ओ-दिल में कुछ न कुछ रिश्ता भी था
ऐ मोहब्बत मैं कभी यकजा भी था
मुझ में इक मौसम कभी ऐसा न था
ऐसा मौसम जिस में तू महका भी था
तुझ से मिलने किस तरह हम आए हैं
रास्ते में ख़ून का दरिया भी था
कज-कुलाहों पर कहाँ मुमकिन सितम
हाँ मगर उस ने मुझे चाहा भी था
आज ख़ुद साया-तलब है वक़्त से
ये वही घर है कि जो साया भी था
जाने किस सहरा-ए-ग़म में खो गया
हाए वो आँसू कि जो दरिया भी था
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