वही दिया कि थीं आजिज़ हवाएँ जिन से 'उमर'
किसी के फिर न जलाए जला बुझा ऐसा
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हर इक का दर्द उसी आशुफ़्ता-सर में तन्हा था
बाहर बाहर सन्नाटा है अंदर अंदर शोर बहुत
उस इक दिए से हुए किस क़दर दिए रौशन
मुसाफ़िरों से मोहब्बत की बात कर लेकिन
बुरा सही मैं प नीयत बुरी नहीं मेरी
उठा ये शोर वहीं से सदाओं का क्यूँ-कर
जिस आईने में भी झाँका नज़र उसी से मिली
हो के उस कूचे से आई तो सितम ढा गई क्या
हैं सारे जुर्म जब अपने हिसाब में लिखना
तारी है हर तरफ़ जो ये आलम सुकूत का
जो तीर आया गले मिल के दिल से लौट गया