उस इक दिए से हुए किस क़दर दिए रौशन
वो इक दिया जो कभी बाम-ओ-दर में तन्हा था
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हो के उस कूचे से आई तो सितम ढा गई क्या
मुसाफ़िरों से मोहब्बत की बात कर लेकिन
चले जो धूप में मंज़िल थी उन की
मुझे मेहमाँ ही जानो रात भर का
छुप कर न रह सकेगा वो हम से कि उस को हम
उठा ये शोर वहीं से सदाओं का क्यूँ-कर
हर इक का दर्द उसी आशुफ़्ता-सर में तन्हा था
जो तीर आया गले मिल के दिल से लौट गया
लड़ जाते हैं सरों पे मचलती क़ज़ा से भी
कर अपनी बात कि प्यारे किसी की बात से क्या
हैं सारे जुर्म जब अपने हिसाब में लिखना