मुसाफ़िरों से मोहब्बत की बात कर लेकिन
मुसाफ़िरों की मोहब्बत का ए'तिबार न कर
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वो चुप लगी है कि हँसता है और न रोता है
मुझे मेहमाँ ही जानो रात भर का
उस इक दिए से हुए किस क़दर दिए रौशन
छुप कर न रह सकेगा वो हम से कि उस को हम
हर इक का दर्द उसी आशुफ़्ता-सर में तन्हा था
वही दिया कि थीं आजिज़ हवाएँ जिन से 'उमर'
बाहर बाहर सन्नाटा है अंदर अंदर शोर बहुत
हैं सारे जुर्म जब अपने हिसाब में लिखना
जो तीर आया गले मिल के दिल से लौट गया
लड़ जाते हैं सरों पे मचलती क़ज़ा से भी