चले जो धूप में मंज़िल थी उन की
हमें तो खा गया साया शजर का
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हर इक का दर्द उसी आशुफ़्ता-सर में तन्हा था
तारी है हर तरफ़ जो ये आलम सुकूत का
मुझे मेहमाँ ही जानो रात भर का
लड़ जाते हैं सरों पे मचलती क़ज़ा से भी
हो के उस कूचे से आई तो सितम ढा गई क्या
वो चुप लगी है कि हँसता है और न रोता है
जिस आईने में भी झाँका नज़र उसी से मिली
हैं सारे जुर्म जब अपने हिसाब में लिखना
उस इक दिए से हुए किस क़दर दिए रौशन
उठा ये शोर वहीं से सदाओं का क्यूँ-कर
मुसाफ़िरों से मोहब्बत की बात कर लेकिन
जो तीर आया गले मिल के दिल से लौट गया