बाहर बाहर सन्नाटा है अंदर अंदर शोर बहुत
दिल की घनी बस्ती में यारो आन बसे हैं चोर बहुत
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वही दिया कि थीं आजिज़ हवाएँ जिन से 'उमर'
हर इक का दर्द उसी आशुफ़्ता-सर में तन्हा था
मुझे मेहमाँ ही जानो रात भर का
चले जो धूप में मंज़िल थी उन की
जिस आईने में भी झाँका नज़र उसी से मिली
छुप कर न रह सकेगा वो हम से कि उस को हम
उस इक दिए से हुए किस क़दर दिए रौशन
अक्सर हुआ है ये कि ख़ुद अपनी तलाश में
उठा ये शोर वहीं से सदाओं का क्यूँ-कर
जो तीर आया गले मिल के दिल से लौट गया