तज़्किरा हो तिरा ज़माने में
ऐसा पहलू कोई बयान में रख
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जब इंसान को अपना कुछ इदराक हुआ
इस महफ़िल में मैं भी क्या बेबाक हुआ
बढ़ते चले गए जो वो मंज़िल को पा गए
इल्म ओ फ़न के राज़-ए-सर-बस्ता को वा करता हुआ
साथी मिरे कहाँ से कहाँ तक पहुँच गए
यहाँ हम ने किसी से दिल लगाया ही नहीं 'मंज़र'
हर बार ही मैं जान से जाने में रह गया
कभी इक़रार होना था कभी इंकार होना था
ये तो सच है कि वो सितमगर है
ख़ुद को हर रोज़ इम्तिहान में रख
ये मेरे साथी हैं प्यारे साथी मगर इन्हें भी नहीं गवारा