साथी मिरे कहाँ से कहाँ तक पहुँच गए
मैं ज़िंदगी के नाज़ उठाने में रह गया
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इस महफ़िल में मैं भी क्या बेबाक हुआ
बढ़ते चले गए जो वो मंज़िल को पा गए
कभी इक़रार होना था कभी इंकार होना था
सुना ये था बहुत आसूदा हैं साहिल के बाशिंदे
ये मेरे साथी हैं प्यारे साथी मगर इन्हें भी नहीं गवारा
ये तो सच है कि वो सितमगर है
हर बार ही मैं जान से जाने में रह गया
यहाँ हम ने किसी से दिल लगाया ही नहीं 'मंज़र'
बना के वहम ओ गुमाँ की दुनिया हक़ीक़तों के सराब देखूँ
तज़्किरा हो तिरा ज़माने में
ख़ुद को हर रोज़ इम्तिहान में रख