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बना के वहम ओ गुमाँ की दुनिया हक़ीक़तों के सराब देखूँ - उमैर मंज़र कविता - Darsaal

बना के वहम ओ गुमाँ की दुनिया हक़ीक़तों के सराब देखूँ

बना के वहम ओ गुमाँ की दुनिया हक़ीक़तों के सराब देखूँ

मैं अपने ही आईने में ख़ुद को जहाँ भी देखूँ ख़राब देखूँ

ये किस के साए ने रफ़्ता रफ़्ता इक अक्स मौहूम कर दिया है

अदम अगर है वजूद मेरा तो रोज़ ओ शब क्यूँ अज़ाब देखूँ

बदल बदल के हर एक पहलू फ़साना क्या क्या बना रहा है

बहुत से किरदार आए होंगे मगर कोई इंतिख़ाब देखूँ

ये मेरे साथी हैं प्यारे साथी मगर इन्हें भी नहीं गवारा

मैं अपनी वहशत के मक़बरे से नई तमन्ना के ख़्वाब देखूँ

मैं चाहता हूँ बदल दूँ 'मंज़र' पुराने नक़्श ओ निगार सारे

कि सरहद-ए-जिस्म-ओ-जाँ से आगे नया कोई इज़्तिराब देखूँ

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In Hindi By Famous Poet Umair Manzar. is written by Umair Manzar. Complete Poem in Hindi by Umair Manzar. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.