वो मौसमों पर उछालता है सवाल कितने
कभी तो यूँ हो कि आसमाँ से जवाब बरसे
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ग़ज़ल का सिलसिला था याद होगा
सफ़र अंजाम तक पहुँचे तो कैसे
दिल ने फिर चाहा उजाले का समुंदर होना
हर तरफ़ फैला हुआ बे-सम्त बे-मंज़िल सफ़र
एक साए की तलब में ज़िंदगी पहुँची यहाँ
ये बिफरती मौज अंदेशे समुंदर और मैं
हम बुज़ुर्गों की रिवायत से जुड़े हैं भाई
ज़ुल्म को तेरे ये ताक़त नहीं मिलने वाली
नफ़रतों का अक्स भी पड़ने न देना ज़ेहन पर
उस के वा'दे के एवज़ दे डाली अपनी ज़िंदगी
सभी ज़ख़्मों के टाँके खुल गए हैं