सभी ज़ख़्मों के टाँके खुल गए हैं
हमें हँसना बहुत महँगा पड़ा है
Allama Iqbal
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कोई वादा न देंगे दान में क्या
सफ़र अंजाम तक पहुँचे तो कैसे
दिल ने फिर चाहा उजाले का समुंदर होना
उस के वा'दे के एवज़ दे डाली अपनी ज़िंदगी
हर तरफ़ फैला हुआ बे-सम्त बे-मंज़िल सफ़र
ग़ज़ल का सिलसिला था याद होगा
हम बुज़ुर्गों की रिवायत से जुड़े हैं भाई
वो मौसमों पर उछालता है सवाल कितने
ज़ुल्म को तेरे ये ताक़त नहीं मिलने वाली
धूप होते हुए बादल नहीं माँगा करते
कभी ज़माना था उस की तलब में रहते थे