नफ़रतों का अक्स भी पड़ने न देना ज़ेहन पर
ये अँधेरा जाने कितनों का उजाला खा गया
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धूप होते हुए बादल नहीं माँगा करते
ग़ज़ल का सिलसिला था याद होगा
उस के वा'दे के एवज़ दे डाली अपनी ज़िंदगी
कभी ज़माना था उस की तलब में रहते थे
हर तरफ़ फैला हुआ बे-सम्त बे-मंज़िल सफ़र
ये बिफरती मौज अंदेशे समुंदर और मैं
वो मौसमों पर उछालता है सवाल कितने
ज़ुल्म को तेरे ये ताक़त नहीं मिलने वाली
कोई वादा न देंगे दान में क्या
एक साए की तलब में ज़िंदगी पहुँची यहाँ
सफ़र अंजाम तक पहुँचे तो कैसे
हम बुज़ुर्गों की रिवायत से जुड़े हैं भाई