हर तरफ़ फैला हुआ बे-सम्त बे-मंज़िल सफ़र
भीड़ में रहना मगर ख़ुद को अकेला देखना
Javed Akhtar
Habib Jalib
Rahat Indori
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Mir Taqi Mir
Parveen Shakir
Ahmad Faraz
Anwar Masood
Jaun Eliya
Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
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ये बिफरती मौज अंदेशे समुंदर और मैं
दिल ने फिर चाहा उजाले का समुंदर होना
सभी ज़ख़्मों के टाँके खुल गए हैं
वो मौसमों पर उछालता है सवाल कितने
उस के वा'दे के एवज़ दे डाली अपनी ज़िंदगी
ग़ज़ल का सिलसिला था याद होगा
कोई वादा न देंगे दान में क्या
सफ़र अंजाम तक पहुँचे तो कैसे
नफ़रतों का अक्स भी पड़ने न देना ज़ेहन पर
एक साए की तलब में ज़िंदगी पहुँची यहाँ
धूप होते हुए बादल नहीं माँगा करते
हम बुज़ुर्गों की रिवायत से जुड़े हैं भाई