घाव Poetry (page 17)
दिल किस से लगाऊँ कहीं दिलबर नहीं मिलता
रिन्द लखनवी
क्यूँ अंधेरों का मुसाफ़िर है मुक़द्दर अपना
रिफ़अतुल क़ासमी
लोग उट्ठे हैं तिरी बज़्म से क्या क्या हो कर
रिफ़अत सेठी
तुम अँधियारों की बात करो
रेहान अल्वी
इक सहीफ़ा नया उतरा है सुना है लोगो
रज़िया फ़सीह अहमद
क़ल्ब-ओ-जिगर के दाग़ फ़रोज़ाँ किए हुए
रज़ी रज़ीउद्दीन
ख़ुद-निगर थे और महव-ए-दीद-ए-हुस्न-ए-यार थे
रज़ी मुजतबा
वो तमाम रंग अना के थे वो उमंग सारी लहू से थी
राज़ी अख्तर शौक़
सलामत आए हैं फिर उस के कूचा-ओ-दर से
राज़ी अख्तर शौक़
कुछ लोग समझने ही को तयार नहीं थे
राज़ी अख्तर शौक़
जभी तो ज़ख़्म भी गहरा नहीं है
राज़ी अख्तर शौक़
मुहक़क़िक़
रज़ा नक़वी वाही
मेहमान-ए-ख़ोसूसी
रज़ा नक़वी वाही
घर की रौनक़
रज़ा नक़वी वाही
यूँही ज़ालिम का रहा राज अगर अब के बरस
रज़ा मौरान्वी
ये किस दयार के हैं किस के ख़ानदान से हैं
रज़ा मौरान्वी
किसी के ज़ख़्म पर अश्कों का फाहा रख दिया जाए
रज़ा मौरान्वी
कैफ़ नसीब अब कहाँ ग़ुंचों के भी जमाल में
रज़ा जौनपुरी
दिल में झाँका तो बहुत ज़ख़्म पुराने निकले
रज़ा अमरोही
उम्र भर पेश-ए-नज़र माह-ए-तमाम आते रहे
रौनक़ रज़ा
कोई ज़ख़्म खुला तो सहने लगे कोई टीस उठी लहराने लगे
रउफ़ रज़ा
इस ख़ार-मिज़ाजी में फूलों की तरह खिलना
रउफ़ ख़लिश
रस्ते में तो ख़तरात की सुन-गुन भी बहुत है
रऊफ़ ख़ैर
हम अगर रद्द-ए-अमल अपना दिखाने लग जाएँ
रऊफ़ ख़ैर
साया सा इक ख़याल की पहनाइयों में था
रासिख़ इरफ़ानी
अँधेरों में उजाले खो रहे हैं
रासिख़ इरफ़ानी
दोस्त के शहर में जब मैं पहुँचा शहर का मंज़र अच्छा था
रासिख़ फारानी
शैख़-ए-हरम उस बुत का परस्तार हुआ है
रासिख़ अज़ीमाबादी
रात आख़िर हो सितम-पेशों पे ऐसा भी नहीं
राशिद तराज़
ख़ेमा-ज़न कौन है आख़िर ये कनार-ए-दिल पर
राशिद तराज़
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