समय Poetry (page 16)

वो ले के दिल को ये सोची कहीं जिगर भी है

शौक़ क़िदवाई

दिल मिरा टूटा तो उस को कुछ मलाल आ ही गया

शौक़ क़िदवाई

दिल खोटा है हम को उस से राज़-ए-इश्क़ न कहना था

शौक़ क़िदवाई

नहीं ज़माने में हासिल कहीं ठिकाना मुझे

शौक़ जालंधरी

शब-हाए-ऐश का वो ज़माना किधर गया

शौक़ देहलवी मक्की

रो रही है जिस तरह ये शम्अ परवाने के बाद

शौक़ देहलवी मक्की

मंज़िल है कठिन कम ज़ाद-ए-सफ़र मालूम नहीं क्या होना है

शौक़ बहराइची

किसी की बाज़ी कैसी घात

शौकत परदेसी

जब मस्लहत-ए-वक़्त से गर्दन को झुका कर

शौकत परदेसी

अपने पराए थक गए कह कर हर कोशिश बेकार रही

शौकत परदेसी

ज़िंदगी का सफ़र ख़त्म होता रहा तुम मुझे दम-ब-दम याद आते रहे

शौकत परदेसी

हर बुरे वक़्त में काम आया था

शौकत परदेसी

एक वहशत है रहगुज़ारों में

शौकत परदेसी

वो बात सोच के मैं जिस को मुद्दतों जीता

शारिक़ कैफ़ी

सब आसान हुआ जाता है

शारिक़ कैफ़ी

नज़र भर देख लूँ बस

शारिक़ कैफ़ी

जनाज़े में तो आओगे न मेरे

शारिक़ कैफ़ी

इबादत के वक़्त में हिस्सा

शारिक़ कैफ़ी

एक कैंसर के मरीज़ की बड़-बड़

शारिक़ कैफ़ी

ये कुछ बदलाव सा अच्छा लगा है

शारिक़ कैफ़ी

ये चुपके चुपके न थमने वाली हँसी तो देखो

शारिक़ कैफ़ी

वो दिन भी थे कि इन आँखों में इतनी हैरत थी

शारिक़ कैफ़ी

सब आसान हुआ जाता है

शारिक़ कैफ़ी

ख़्वाब वैसे तो इक इनायत है

शारिक़ कैफ़ी

ख़मोशी बस ख़मोशी थी इजाज़त अब हुई है

शारिक़ कैफ़ी

कहीं न था वो दरिया जिस का साहिल था मैं

शारिक़ कैफ़ी

बे-तकल्लुफ़ मिरा हैजान बनाता है मुझे

शारिक़ कैफ़ी

क़ुदरत है तुर्फ़ा-कार तुझे कुछ ख़बर भी है

शारिक़ ईरायानी

सुकून-ए-क़ल्ब मयस्सर किसे जहान में है

शारिब मौरान्वी

जो अपनी चश्म-ए-तर से दिल का पारा छोड़ जाता है

शारिब मौरान्वी

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