संग Poetry (page 23)
वो एक रौ जो लब-ए-नुक्ता-चीं में होती है
अज़ीज़ हामिद मदनी
लिखी हुई जो तबाही है उस से क्या जाता
अज़ीज़ हामिद मदनी
एक ही शहर में रहते बस्ते काले कोसों दूर रहा
अज़ीज़ हामिद मदनी
मैं अपने शहर में अपना ही चेहरा खो बैठा
अज़हर नैयर
वो मेरा यार था मुझ को न ये ख़याल आया
अज़हर इनायती
उश्शाक़ बहुत हैं तिरे बीमार बहुत हैं
अय्यूब ख़ावर
मुझ से बे-ज़ारो न यूँ संग से मारो मुझ को
अतीक़ुल्लाह
गरचे मैं सर से पैर तलक नोक-ए-संग था
अतीक़ुल्लाह
चराग़ हाथों के बुझ रहे हैं सितारा हर रह-गुज़र में रख दे
अतीक़ुल्लाह
मैं उसे सुब्ह न जानूँ जो तिरे संग नहीं
अतहर नासिक
मैं तुझे भूलना चाहूँ भी तो ना-मुम्किन है
अतहर नासिक
भरोसे का क़त्ल
अतीया दाऊद
पारसाओं ने बड़े ज़र्फ़ का इज़हार किया
अता शाद
गहरी है शब की आँच कि ज़ंजीर-ए-दर कटे
अता शाद
चोब-ए-सहरा भी वहाँ रश्क-ए-समर कहलाए
अता शाद
चोब-ए-सहरा भी वहाँ रश्क-ए-समर कहलाए
अता शाद
सानेहा
असरार-उल-हक़ मजाज़
नौ-जवान से
असरार-उल-हक़ मजाज़
सीना-ए-संग में ढूँढता है गुदाज़
असरारुल हक़ असरार
बे-रंग न वापस कर इक संग ही दे सर को
असलम महमूद
सराब-ए-मअनी-ओ-मफ़्हूम में भटकते हैं
असलम महमूद
मैं हज्व इक अपने हर क़सीदे की रद में तहरीर कर रहा हूँ
असलम महमूद
क्यूँ मुझ से गुरेज़ाँ है मैं तेरा मुक़द्दर हूँ
असलम महमूद
फेंका था किस ने संग-ए-हवस रात ख़्वाब में
असलम आज़ाद
सज़ा
असलम आज़ाद
यादों का लम्स ज़ेहन को छू कर गुज़र गया
असलम आज़ाद
वो क्या है कौन है ये तो ज़रा बता मुझ को
असलम आज़ाद
आँखों से मैं ने चख लिया मौसम के ज़हर को
असलम आज़ाद
कभी ऐसा तमव्वुज तुम ने देखा है
असलम अंसारी
किसे मजाल जो टोके मिरी उड़ानों को
अासिफ़ साक़िब
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