शायद Poetry (page 8)
यास की मंज़िल में तन्हाई थी और कुछ भी नहीं
शिव चरन दास गोयल ज़ब्त
फिर मिरी आँख तिरी याद से भर आई है
शिव चरन दास गोयल ज़ब्त
न जब तक दर्द-ए-इंसाँ से किसी को आगही होगी
शिव चरन दास गोयल ज़ब्त
क़स्द जब तेरी ज़ियारत का कभू करते हैं
ज़ौक़
बाग़-ए-आलम में जहाँ नख़्ल-ए-हिना लगता है
ज़ौक़
सायों के साए में
शीन काफ़ निज़ाम
बे-नंग-ओ-नाम
शाज़ तमकनत
अजनबी
शाज़ तमकनत
मेरी वहशत का तिरे शहर में चर्चा होगा
शाज़ तमकनत
मैं लौट आऊँ कहीं तू ये सोचता ही न हो
शाज़ तमकनत
किस किस को अब रोना होगा जाने क्या क्या भूल गया
शाज़ तमकनत
जिस तरफ़ जाऊँ उधर आलम-ए-तन्हाई है
शाज़ तमकनत
शाम के ढलते सूरज ने ये बात मुझे समझाई है
शायान क़ुरैशी
मारे ग़ुस्से के ग़ज़ब की ताब रुख़्सारों में है
शौक़ क़िदवाई
जफ़ा पे शुक्र का उम्मीद-वार क्यूँ आया
शौक़ क़िदवाई
ख़िलाफ़-ए-हंगामा-ए-तशद्दुद क़दम जो हम ने बढ़ा दिए हैं
शौक़ बहराइची
औरत
शौकत परदेसी
अजब लहजे में करते थे दर ओ दीवार बातें
शारिक़ कैफ़ी
नज़र भर देख लूँ बस
शारिक़ कैफ़ी
मोहब्बत की इंतिहा पर
शारिक़ कैफ़ी
जन्नत से दूर
शारिक़ कैफ़ी
इबादत के वक़्त में हिस्सा
शारिक़ कैफ़ी
दूसरे हाथ का दुख
शारिक़ कैफ़ी
छुट्टी का दिन
शारिक़ कैफ़ी
अपने तमाशे का टिकट
शारिक़ कैफ़ी
वो दिन भी थे कि इन आँखों में इतनी हैरत थी
शारिक़ कैफ़ी
तरह तरह से मिरा दिल बढ़ाया जाता है
शारिक़ कैफ़ी
सफ़र से मुझ को बद-दिल कर रहा था
शारिक़ कैफ़ी
ख़मोशी बस ख़मोशी थी इजाज़त अब हुई है
शारिक़ कैफ़ी
होने से मिरे फ़र्क़ ही पड़ता था भला क्या
शारिक़ कैफ़ी
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