रेगिस्तान Poetry (page 4)
मिरे भी सुर्ख़-रू होने का इक मौक़ा निकल आता
यूसुफ़ तक़ी
दर्द की ख़ुशबू से ये महका रहा
यूसुफ़ तक़ी
कोरे काग़ज़ की तरह बे-नूर बाबों में रहा
युसूफ़ जमाल
मिला है तपता सहरा देखने को
यज़दानी जालंधरी
मिला है तपता सहरा देखने को
यज़दानी जालंधरी
उफ़ुक़ तक मेरा सहरा खिल रहा है
यासमीन हमीद
अता-ए-अब्र से इंकार करना चाहिए था
यासमीन हमीद
तेरे अल्ताफ़ का लुत्फ़ उठाते रहे
यशपाल गुप्ता
मिरी दुआओं की सब नग़्मगी तमाम हुई
याक़ूब यावर
हर एक गाम पे इक बुत बनाना चाहा है
याक़ूब तसव्वुर
नज़रों में कहाँ उस की वो पहला सा रहा मैं
याक़ूब आमिर
रौशनी का क़ालिब जब तीरगी में ढलता है
यहया ख़ालिद
काम दीवानों को शहरों से न बाज़ारों से
यगाना चंगेज़ी
या अब्र-ए-करम बन के बरस ख़ुश्क ज़मीं पर
वज़ीर आग़ा
करना पड़ेगा अपने ही साए में अब क़याम
वज़ीर आग़ा
इस गिर्या-ए-पैहम की अज़िय्यत से बचा दे
वज़ीर आग़ा
चलो माना हमीं बे-कारवाँ हैं
वज़ीर आग़ा
ज़ुलेख़ा के वक़ार-ए-इश्क़ को सहरा से क्या निस्बत
वासिफ़ देहलवी
क़दम यूँ बे-ख़तर हो कर न मय-ख़ाने में रख देना
वासिफ़ देहलवी
इज़्ज़त उन्हें मिली वही आख़िर बड़े रहे
वासिफ़ देहलवी
हरीम-ए-नाज़ को हम ग़ैर की महफ़िल नहीं कहते
वासिफ़ देहलवी
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
वसीम बरेलवी
पेश वो हर पल है साहब
वक़ार सहर
जमालियात
वामिक़ जौनपुरी
शोरिश से चश्म-ए-तर की ज़ि-बस ग़र्क़-ए-आब हूँ
वलीउल्लाह मुहिब
मिल उस परी से क्या क्या हुआ दिल
वलीउल्लाह मुहिब
मैं सहरा जा के क़ब्र-ए-हज़रत-ए-मजनूँ को देखा था
वली उज़लत
जो आशिक़ हो उसे सहरा में चल जाने से क्या निस्बत
वली उज़लत
जावे थी जासूसी-ए-मजनूँ को ता राहत न ले
वली उज़लत
मैं वो मजनूँ हूँ कि आबाद न उजड़ा समझूँ
वली उज़लत
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