सहर Poetry (page 8)
दिल ज़बाँ ज़ेहन मिरे आज सँवरना चाहें
स्वप्निल तिवारी
बुलबुल ओ परवाना
सुरूर जहानाबादी
यही नहीं कि मिरा दिल ही मेरे बस में न था
सुरूर बाराबंकवी
तू उरूस-ए-शाम-ए-ख़याल भी तू जमाल-ए-रू-ए-सहर भी है
सुरूर बाराबंकवी
तू उरूस-ए-शाम-ए-ख़याल भी तो जमाल-ए-रू-ए-सहर भी है
सुरूर बाराबंकवी
जब तलक रौशनी-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र बाक़ी है
सुरूर बाराबंकवी
और कोई दम की मेहमाँ है गुज़र जाएगी रात
सुरूर बाराबंकवी
रात दिन शाम-ओ-सहर सब एक रंग
सुल्तान शाहिद
हरीफ़-ए-वक़्त हूँ सब से जुदा है राह मिरी
सुल्तान अख़्तर
न ढलती शाम न ठंडी सहर में रक्खा है
सुलेमान ख़ुमार
कुछ नहीं है तो ये अंदेशा ये डर कैसा है
सुलेमान ख़ुमार
बीमार सा है जिस्म-ए-सहर काँप रहा है
सुलेमान ख़ुमार
ये भी शायद तिरा अंदाज़-ए-दिल-आराई है
सुलैमान अरीब
आज भी हाथ पे है तेरे पसीने की तरी
सुलैमान अरीब
बरसों हुए उस से न कोई बात हुई रात
सुहैल काकोरवी
जन्नत से निकाला न जहन्नुम से निकाला
सुहैल अख़्तर
चंद रोज़ और मिरी जान फ़क़त चंद ही रोज़
सूफ़ी तबस्सुम
बंद हो जाए मिरी आँख अगर
सूफ़ी तबस्सुम
वो हुस्न को जल्वा-गर करेंगे
सूफ़ी तबस्सुम
वो हुस्न को जल्वा-गर करेंगे
सूफ़ी तबस्सुम
सुकून-ए-क़ल्ब ओ शकेब-ए-नज़र की बात करो
सूफ़ी तबस्सुम
सायों से लिपट रहे थे साए
सूफ़ी तबस्सुम
मोहब्बत किस क़दर सेहर-आफ़रीं मालूम होती है
सूफ़ी तबस्सुम
ख़ामोशी कलाम हो गई है
सूफ़ी तबस्सुम
इस आलम-ए-वीराँ में क्या अंजुमन-आराई
सूफ़ी तबस्सुम
हज़ार गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर से गुज़रे हैं
सूफ़ी तबस्सुम
दिल को आए कि निगाहों को यक़ीं आ जाए
सूफ़ी तबस्सुम
ऐसे भी थे कुछ हालात
सूफ़ी तबस्सुम
तुम न घबराओ मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर को देख कर
सुदर्शन फ़ाकिर
शायद मैं ज़िंदगी की सहर ले के आ गया
सुदर्शन फ़ाकिर
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