सबसे Poetry (page 71)
मिरी विरासत में जो भी कुछ है वो सब इसी दहर के लिए है
ग़ुलाम हुसैन साजिद
चराग़ की ओट में रुका है जो इक हयूला सा यासमीं का
ग़ुलाम हुसैन साजिद
कोई जुगनू कोई तारा कोई सूरज कोई चाँद
ग़ुफ़रान अमजद
अभी आइना मुज़्महिल है
ग़ुफ़रान अमजद
कोई दो-चार नहीं महव-ए-तमाशा सब हैं
ग़ुफ़रान अमजद
कोई दो चार नहीं महव-ए-तमाशा सब हैं
ग़ुफ़रान अमजद
अजब इंक़लाब का दौर है कि हर एक सम्त फ़िशार है
ग़ुबार भट्टी
क़ल्ब-ओ-नज़र के सिलसिले मेरी निगाह में रहे
गाैस मथरावी
बैठे हैं ईद को सब यार बग़ल में ले कर
ग़ज़नफ़र अली ग़ज़नफ़र
तारीकी में नूर का मंज़र सूरज में शब देखोगे
ग़ज़नफ़र
ज़मीं के साथ फ़लक के सफ़र में हम भी हैं
ग़यास मतीन
तुझे मैं भूल जाना चाहता हूँ
ग़यास अंजुम
मुख़्तसर सी बात को भी मसअला कहते रहे
ग़ौसिया ख़ान सबीन
चल दिया नाज़ ज़माने के उठाने वाला
ग़ौसिया ख़ान सबीन
अभी देखी कहाँ हैं आप ने सब ख़ूबियाँ मेरी
ग़ौसिया ख़ान सबीन
भीगी भीगी बरखा रुत के मंज़र गीले याद करो
ग़ौस सीवानी
थकन ग़ालिब है दम टूटे हुए हैं
ग़नी एजाज़
शम्अ-रू आशिक़ को अपने यूँ जलाना चाहिए
ग़मगीन देहलवी
न पूछ हिज्र में जो हाल अब हमारा है
ग़मगीन देहलवी
सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त
ग़ालिब
क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब
ग़ालिब
हो चुकीं 'ग़ालिब' बलाएँ सब तमाम
ग़ालिब
'ग़ालिब' न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़
ग़ालिब
'ग़ालिब' बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ग़ालिब
तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
ग़ालिब
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
ग़ालिब
मंज़ूर थी ये शक्ल तजल्ली को नूर की
ग़ालिब
कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
ग़ालिब
कहते तो हो तुम सब कि बुत-ए-ग़ालिया-मू आए
ग़ालिब
घर जब बना लिया तिरे दर पर कहे बग़ैर
ग़ालिब
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